तुम इतनी जिद्दी क्यूँ
होया फिर जिद्दी होते हुए
इतनी प्यारी क्यूँ हो
।जिद तो ठीक है लेकिन
किसी पल बिना तोड़े जिद
दे सकती हो अहसास
जिद तोड़ने का।
तुम कभी बतालाओगी मुझसे
उसी तरह,
जब संकोच के बावजूद
बेझिझक जता देती थी तुम
अपनापन कुछ ही क्षणों में
जैसे रिश्ता कोई जन्मों का हो।
मेरी वेदना का दर्द भी
हिला न पाया तुम्हें।
यदि यह तुम्हारे मन से होता
तो मंजूर होता भी
पर यह तो समाज से डरना हुआ
और वो भी उस समाज से
जिसकी न कोई रीढ़ है,
जिसकी न कोई नीति है।
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